Path - 1 in Hindi Motivational Stories by Rajesh Maheshwari books and stories PDF | पथ भाग १

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पथ भाग १

मेरा यह प्रयास समर्पित है

श्रृद्धेय श्री वेणुगोपाल जी बांगड़ को

जिनकी पितृव्य स्नेह स्निग्ध छाया ने

प्रदान किया है

हर पल

संरक्षण और सम्बल

आत्म-कथ्य

एक उद्योगपति परिवार में जन्म लेने के कारण और एक उद्योगपति के रुप में जीवन व्यतीत करने के कारण मैंने एक उद्योगपति के जीवन में आने वाले उतार-चढ़ाव तथा एक उद्योग के संचालन में रास्ते में आने वाले पर्वतों और खाइयों को देखा और उन्हें पार किया है। जब मैं इक्कीस साल का था तभी मेरे पिता मुझे छोड़कर परलोक चले गये थे। उनकी संपत्ति के अतिरिक्त जीवन के संघर्ष में पिता से मिलने वाले मार्गदर्शन और ज्ञान से मैं वंचित रहा। मैं अनुभव करता हूँ कि यदि वह मुझे मिला होता तो जीवन में उतनी कठिनाइयाँ और उतना संघर्ष नहीं होता जितना मेरे सामने रहा।

मेरे मन में यह विचार निरन्तर आता रहा कि हमारी नयी पीढ़ी जो उद्योग के क्षेत्र में असीमित सपनों के साथ पदार्पण कर रही है अथवा इस दिशा में आगे बढ़ने का विचार रखती है उसे संसार के टेड़े-मेड़े रास्ते का जितना भी हो सके उतना परिचय अवश्य दूं।

सूर्योदय के साथ

प्रारम्भ हुआ मन्थन

जन्म और मृत्यु के

सत्य पर चिन्तन

दुनियां में सब होगा

लेकिन हम न रहेंगे

हमारे लिये तब

कितने आंसू बहेंगे

दस्तूर है जमाने का

रहनुमा होते हैं कम

किसी के बिछुड़ने से

कम को ही होता है गम

किसी की आंख से निकले

दो आंसू

जीवन को देंगे सार्थकता

फिर नया रुप लेगी

आत्मा की अमरता

तन तो है आत्मा का घर

सीमित है उसका सफर।

मेरी यह पुस्तक उसी प्रयास का हिस्सा है। जीवन की अनेक घटनाओं और अनुभवों को मैंने कल्पना से जोड़कर कहानी के रुप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इसकी रचना में श्री अभय तिवारी, श्री राजीव गौतम, श्री के. कुमार, श्री प्रेम दुबे एवं श्री सतीश अवस्थी का भी मैं आभारी हूँ जिनके विचार-विमर्श से इसको पूरा करने में मुझे बहुत सहायता मिली है। आशा करता हूँ कि हमारे भविष्य को इससे अवश्य लाभ होगा।

जबलपुर राजेश माहेश्वरी

रामनवमी 106,नयागाँव हाउसिंग सोसायटी,

संवत 2071 जबलपुर, म. प्र.

पथ

आज मैं अकेला था, बिलकुल अकेला। मेरी आंखों के सामने मेरा कारखाना था। मेरा कारखाना, जिसे मैंने बेचने का निश्चय कर लिया था। आज कारखाना बन्द था। सभी ओर सन्नाटा पसरा हुआ था। मन बहुत बेचैन था। इस कारखाने का निर्माण बीसवीं सदी के प्रारम्भ में हुआ था। यह देश के गिने-चुने प्राचीन कारखानों में से एक था। कल तक यह चल रहा था। कारखाने में लगातार हो रहे घाटे, मजदूरों के वेतन में बेतहाशा वृद्धि, अनुशासन हीनता, उत्पादन में कमी, गुणवत्ता में कमी आदि अनेक कारण थे जिससे कारखाने को चलाना असम्भव हो गया था। मुझे कारखाने को बेचने का निर्णय लेना पड़ा।

मैं भारी मन और भारी कदमों से कुर्सी से उठा और बाहर की ओर चल दिया। जब मैं दरवाजे के बाहर कदम रख रहा था तभी मुझे लगा जैसे कोई मेरे कानों में कह रहा हो- यह तुम क्या करने जा रहे हो? यह तुम्हारे पूर्वजों की निशानी है। जब यह कारखाना बना था तब पूरे देश में फायर ब्रिक्स बनाने वाले दो ही कारखाने थे जिनमें से एक यह था। मुझे अनुभव हो रहा था कि ये निर्जीव दीवारें आज अचानक जुदाई के अहसास से सजीव हो गईं हैं। ऐसा लग रहा था जैसे जुदाई के पूर्व वे हमें अपना इतिहास और अपनी जीवन गाथा सुना रही थीं। इस कारखाने ने देखी थी हमारी गरीबी और अमीरी की दास्तां, मंजिल और मुकाम, दिन हो या रात, सुख हो या दुख इसने सदैव हमारा साथ दिया था। आज तक यह प्रेरणा बनकर हमारे साथ था। इसमें जो ममता छिपी है वह अमूल्य है उसका कोई मूल्य नहीं है। यह हमारे पूर्वजों की धरोहर है और हमारे खानदान की प्रतिष्ठा रही है। हमें इस कारखाने के नाम से ही जाना जाता है। हमारे संघर्ष पूर्ण जीवन से कमाये धन दौलत और सम्पत्ति की यह मूक दर्शक रही है। यह प्रतिदिन पूजापाठ भक्ति एवं प्रभु के प्रति विश्वास का अनुभव कराती रही है। यह हमें दिल से आशीर्वाद एवं शुभकामनाएं दे रही है। इन्हें याद रखना और इसे कभी मत बेचना। तुम सोचो समझो और कुछ ऐसा काम कर जाओ जिससे तुम्हारा नाम हमेशा बना रहे।

इसे बेच कर चंद रूपये तो तिजोरी में आ जाएंगे पर तुम दर्पण में अपने प्रतिबिंब को देखोगे तो मान-सम्मान एवं प्रतिष्ठा को धूल-धूसरित पाओगे। इसे इन्तजार है तुम्हारे निर्णय का, तुम्हें भी इन्तजार है स्वयं अपने निर्णय का, इन्तजार के इन पलों को इन्तजार में ही रहने दो। तुम मनन-चिन्तन करना और अपनी अन्तरात्मा की आवाज से अपना अंतिम निर्णय लेना।

.................

वर्तमान में उद्योग और व्यापार में प्रतिद्वंदिता एवं प्रतिस्पर्धा बहुत बढ़ गई है। आज किसी भी नये उद्योग को लगाना उतना आसान नहीं रहा जितना आज से बीस साल पहले था। आज बहुत हिम्मत, धन की प्रचुर उपलब्धता एवं अत्यधिक सचेत रहने की आवश्यकता है। यदि ये गुण आपमें हैं तभी आप उद्योग के क्षेत्र में प्रवेश करने का प्रयास करें अन्यथा इसमें निराषा ही आपके हाथ आएगी। आज स्थापित होने वाले सौ उद्योगों में अस्सी उद्योग तो बन्द हो जाते हैं। मुश्किल से बीस उद्योग ही संघर्ष करके अपने अस्तित्व को बचा पाते हैं और उनमें गिने-चुने ही अच्छा मुनाफा दे पाते हैं। हम उद्योग के क्षेत्र में प्रवेश करना चाहते हैं तो बन्द पड़े उद्योगों की ओर ध्यान न देकर कुछ उद्योग जो मुनाफा दे रहे होते हैं उन्हीं का मनन चिन्तन करके आगे बढ़ जाते हैं जिसका परिणाम असफलता ही होता है। आज वही व्यक्ति उद्योग व व्यापार में सफल हो सकता है जिसमें इतनी जिजीविषा हो कि वह कह सके कि- अपनी हस्ती को कर बुलन्द इतना कि (वह कह सके कि) जमाना हम से है हम जमाने से नहीं। वह इतना संकल्पित होना चाहिए कि उसके द्वारा निर्माण हो निर्वाण नहीं। उसे सकारात्मक सृजन हेतु समर्पित होना चाहिए तभी वह राष्ट्र के औद्योगीकरण एवं निर्माण में भागीदार हो सकेगा।

उद्योगों की उत्पत्ति व निर्माण सामान्यतया तीन प्रकार से होती है एक तो वह जिसे हम अपने परिश्रम से स्थापित करते हैं दूसरे वह जो हमें पूर्वजों से विरासत के रुप में प्राप्त होता है और तीसरा वह जिसे हम क्रय करते हैं। हमें यह पारिवारिक कारखाना बंटवारे में प्राप्त हुआ था। बंटवारे के वे दिन अकस्मात ही मुझे याद आ गए।

.................

जब व्यापार में समृद्धि आती है तब परिवार में आपस में कार्यप्रणाली एवं विचारों में भिन्नता बढ़ जाती है। सभी की अपनी कार्यशैली और दिशाएं अलग-अलग हो जाती हैं परिवार में आपस में मतभेद बढ़ने के कारण अंतिम परिणिति बंटवारे के रुप में सामने आती है।

बढ़ती जा रही है

जीवन में जटिलता।

बढ़ती जा रही है

आदमी की व्यस्तता।

दूभर हो रहा है

संयुक्त परिवार का संचालन

हो रहा है विघटन

अर्थात

परिवारों का संक्षिप्तिकरण।

जब होता है बंटवारा

तब जन्म लेते हैं मनभेद

बढ़ते हैं मतभेद

आपस में हल नहीं होते विवाद,

न्यायालयों में होता है

बेहिसाब

कीमती समय बर्बाद।

पारिवारिक उद्योग हो जाते हैं चौपट

हर ओर होती है

खटपट

खटपट

बस खटपट।

समय के साथ परिवर्तन संसार का नियम है। आज जो भी मेरे पास है वह मेरे पिता के पास था। पिता से मुझे जो मिला था आज वह मेरे पास ज्यों का त्यों नहीं है उसमें से बहुत कुछ अब मेरे पास नहीं है और बहुत कुछ ऐसा है जो मैंने अपने परिश्रम से अर्जित किया है। हर व्यक्ति को एक दिन अपना सब कुछ अगली पीढ़ी को सौंपना ही होता है। एक ही संतान हो तो वही सारी संपत्ति की स्वामी होती है। एक से अधिक हो तो उसे वयस्क होते ही उसका यथोचित भाग सौंप देना चाहिए। जब ऐसा नहीं किया जाता है तो अक्सर माता-पिता के सामने ही उनमें विवाद प्रारम्भ हो जाता है जिसका अंतिम परिणाम भी बंटवारा ही होता है। यदि यह बंटवारा समय पर हो जाए तो आपसी संबंधों में मधुरता बनी रहती है किन्तु जब बंटवारा विवादों के कारण होता है तब आपसी संबंधों में भी कटुता आ जाती है। हमारे यहाँ बंटवारे की स्थिति बनने पर मेरी माँ चाहती थी कि सभी भाई मिल-जुल कर कार्य करें और प्रगति करें। हमारे अन्य भागीदारों का हिस्सा उन्हें दे दिया जाए। मैं भी उनसे सहमत था और बंटवारे के मधुर एवं कटु अनुभवों से परिचित था।

मेरे एक परिचित परिवार में पर्याप्त सम्पत्ति थी। उनके यहाँ उद्योग एजेन्सियां खेती की पर्याप्त जमीन एवं नगद आदि भी थे। वे चार भाई थे एवं उनमें अनेक वर्षों से बंटवारे को लेकर विवाद चल रहे थे। इन चारों भाइयों से मेरे अच्छे संबंध थे। एक दिन अचानक ही मुझे उनके बीच समझौता कराने में प्रमुख भूमिका सौंप दी गई। मैंने उन चारों से चर्चा की और कहा- हर व्यक्ति अपनी क्षमताओं के अनुसार ही अपनी संपत्ति की सही देखभाल कर सकता है। इसीलिये उचित होगा कि वे आपस में स्वयं अपनी रूचि एवं प्रवृत्ति के अनुसार तय करके इस समस्या का हल निकालें। मैंने उनके बीच संवाद बनाये रखने में सहयोग किया एवं उनकी रूचि के अनुसार कार्य संभालने का लगातार परामर्श देता रहा। इसका परिणाम यह हुआ कि एक भाई ने उद्योग, दूसरे ने खेती, तीसरे ने एजेन्सियां और चैथे भाई ने जेवर और नगदी में प्रमुख हिस्सा लेकर आपस में बंटवारा कर लिया।

मैं कुछ माहों से अनुभव कर रहा था कि मेरे साथ मेरे कुछ स्वजनों का व्यवहार एवं बातचीत का तरीका दिनों-दिन बदलता जा रहा है। इससे मुझे मनन और चिन्तन एवं मन्थन के लिये विवश कर दिया। इसी बीच एक ऐसी घटना हुयी जिसने आग में घी का काम किया और मैंने निश्चय कर लिया कि मुझे भी अपना भाग लेकर पृथक हो जाना चाहिए। मैंने अपना निर्णय परिवार के अन्य सदस्यों के समक्ष स्पष्ट कर दिया। माँ ने मुझे समझाने का बहुत प्रयास किया किन्तु मैं जानता था कि वह जो कह रही है उसके पीछे उसकी ममता बोल रही है। इसीलिये मैं अपने निश्चय पर अडिग रहा। अब हमारे यहां बंटवारे में एक भाग और बढ़ गया। मेरे परिवार के अन्य सदस्यों ने जो मुझसे उम्र में बड़े भी थे बंटवारे का जो प्रारुप तैयार किया उसे मैंने बिना किसी प्रतिरोध अथवा संशोधन के स्वीकार कर लिया। यह मेरी बहुत बड़ी भूल थी।

एक दिन सुबह-सुबह मेरे अधिकारी घबराये हुए मेरे पास आये। उन्होंने मुझे बतलाया कि कारखाने में पचास लाख से अधिक स्टाक नदारत है। मैंने जब इस विषय पर दूसरे भागीदारों से चर्चा की तो उनका एक ही उत्तर था- आपको पहले देख कर, जांचकर हस्ताक्षर करना चाहिए थे। अब कुछ नहीं हो सकता। उनके इस व्यवहार से मुझे बहुत गहरी भावनात्मक चोट पहुँची। मैंने स्वयं को संतुलित किया और आकर अधिकारियों से कहा- जो हो चुका है उस पर चर्चा करने में अब कोई सार नहीं है। हमें ईमानदारी से काम करते हुए अपने पथ से विचलित नहीं होना है। हमने जिसे स्वीकार कर लिया है उस पथ पर ही विचलित हुए बिना आगे बढ़ना है।

मुझे बंटवारे से पहले के वे दिन याद आ गए जब रतलाम में स्थित हमारा एक कारखाना घाटे पर चल रहा था। प्रबंधन और मजदूरों के बीच संघर्ष की स्थिति थी। उस समय मैंने न केवल इस असहज स्थिति को समाप्त किया था वरन् घाटे में चल रहे उद्योग को लाभ की स्थिति में पहुँचा दिया था।

उस समय काकाजी ने मुझे इस कार्य को सम्पन्न करने की जवाबदारी सौंपी थी। मैंने उनसे कहा था कि इस कार्य को करने हेतु मुझे समस्त अधिकार चाहिए। मैं जो भी निर्णय लूं उसे पूरी तरह स्वीकार किया जाना चाहिए। काकाजी ने मेरी बात को सहमति दे दी और अपने तीन विश्वासपात्र अधिकारियों को साथ में भेज दिया। वहाँ पहुँचकर मैंने मजदूर नेताओं के साथ-साथ श्रमिकों को भी एक साथ बैठाया तथा दूसरी ओर सभी अधिकारियों को बैठाया। मैंने उनसे कहा- मेरे पास सिर्फ एक घण्टे का समय है। मैं चाहता हूँ कि सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में आपसी समझौता सम्पन्न हो जाए। आपकी जो मांगें हैं उसे आप चाहते हैं कि शत-प्रतिशत मान ली जाएं जबकि प्रबंधन उन्हें पूरी तरह अस्वीकार कर रहा है। मैं प्रबंधन से भी चर्चा कर रहा हूँ कि आपकी मांगे स्वीकार कर ली जाएं। आप लोग सोचकर आधे घण्टे में मुझे बताएं कि आप अपनी मांगों में से कितनी मांगे छोड़ सकते हैं और मैं प्रबंधन से भी बात करता हूँ कि वे आपकी कितनी मांगे स्वीकार कर सकते हैं। आधे घण्टे के बाद हम लोग आपस में पुनः बैठे। इस बीच मैंने अधिकारियों से सहयोग एवं उदारता पूर्वक कार्य करने का अनुरोध किया। मैंने उन्हें समझाया कि ऐसे समझौता नहीं हो सकेगा। ये हमारे पुराने कर्मचारी हैं और लम्बे समय से हमारे साथ काम कर रहे हैं। इन्होंने कभी भी किसी भी संदर्भ में हमारे प्रतिस्पर्धी कारखानों को या उनके अधिकारियों को हमारे विरूद्ध सहयोग नहीं दिया।

श्रमिकों ने इस बीच नया पांसा फेका। उन्होंने अपनी सभी मांगे समाप्त करके मेरे ऊपर विश्वास व्यक्त करते हुए मुझे ही दोनों पक्षों का दायित्व सौंप दिया। मैं इससे विकट परिस्थिति में उलझ गया। श्रमिक मेरी ओर आशा और उत्सुकता से देख रहे थे कि मैं क्या निर्णय करता हूँ। मैंने गंभीरता पूर्वक मन्थन करके पचास प्रतिशत मांगों को स्वीकार किया। मेरी इस बात पर दोंनो ही पक्ष सहमत हो गए एवं एक ऐतिहासिक समझौते के साथ सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में समस्या का समाधान हो गया। मेरा कार्य अभी समाप्त नहीं हुआ था। मुझे कारखाने को घाटे से उबार कर मुनाफे की ओर ले जाना था।

मैंने जब इस दिशा में अध्ययन किया तो पाया कि कारखाने में तीन प्रकार के उत्पादन हो रहे हैं। इन तीन इकाइयों में दो मुनाफे पर थीं और तीसरी इकाई जिसमें विद्युत विभाग में लगने वाले छोटे-छोटे पार्टस का निर्माण होता था वह घाटे पर चल रही थी तथा एक चुनौती के रुप में मेरे सामने खड़ी थी। मुझे बताया गया कि ए. आर. ब्रिक्स की बाजार में बहुत मांग है। मैंने अधिकारियों से जानना चाहा कि हम घाटे में चल रहे स्टोन वेयर पाइप एवं विद्युत विभाग को लगने वाले सामान का उत्पादन बंद करके छोटी मोटी तब्दीली करके ए. आर. ब्रिक्स का निर्माण क्यों नहीं कर रहे। इसका उत्तर पांचों बड़े अधिकारी देने में असमर्थ थे और एक दूसरे की ओर ताक रहे थे।

मैंने इस दिशा में कदम उठाने के तत्काल निर्देश दिये और पाइप का उत्पादन बन्द करके ए. आर. ब्रिक्स बनाना चालू कर दिया इससे बाजार में अच्छी मांग के कारण माल भी बिकता गया और कारखाने को अच्छा मुनाफा मिल सका। मेरे इस निर्णय का परिणाम यह हुआ कि मेरी प्रतिष्ठा तो बढ़ी ही मुझमें भी यह आत्म विश्वास आ गया कि मैं इस कार्य को संभालने में भली-भाँति सक्षम हूँ।

..................

हमारे कारखाने की स्थिति दिनों-दिन खराब होती जा रही थी। वह पूर्णतया बन्द हो जाए इससे पहले ही मैं इसे बेच देना चाहता था। वे मेरे जीवन के सबसे कठिन दिन थे। सब कारखाने बन्द, व्यापार में लगातार घाटा बैंक का बढ़ता हुआ ब्याज परिवार के सदस्यों के बीच आपस में बढ़ता हुआ अविश्वास एवं असहयोग, आने वाले कल की चिन्ता में डूबा हुआ मन, हर ओर निराशा समझ नहीं पा रहा था कि मैं करुं तो क्या करुं? ऐसे समय में मुझे मेरे काकाजी का स्मरण आया। वे कारखाने और व्यापार के मामले में बहुत अनुभवी थे उन्हें जीवन का भी लम्बा अनुभव था। उनकी प्रतिष्ठा एक सफल और प्रतिष्ठित नागरिक की थी, मैं उनका मार्गदर्शन लेने इस विश्वास के साथ गया कि वे निश्चित रुप से कोई समाधान सुझाएंगे। वे मेरी सारी बातें ध्यान से सुनते रहे। मैं अपनी बात समाप्त करने के बाद उनकी ओर आशा की दृष्टि से देख रहा था। वे बोले किसी प्रकार की चिन्ता मत करो। जब खाने-पीने की भी समस्या आ जाए तब अपने पारिवारिक मन्दिर में मुफ्त भोजन देने का प्रावधान है। तुम सपरिवार उसका उपयोग कर सकते हो। यह सुनकर मैं हत्प्रभ रह गया। मेरी मनः स्थिति नदी में बहते हुए उस व्यक्ति जैसी हो गई थी जो जान बचाने के लिये किनारे के किसी बड़े वृक्ष को पकड़े और उसकी डाल वृक्ष से टूटकर उसके ही साथ बहने लगे। मैं समझ नहीं सका कि उन्होंने यह बात क्या सोचकर कही थी। उसके पीछे उनका क्या आशय था। यह मैं आज तक भी नहीं समझ सका हूँ। मैं उन्हें प्रणाम करके भारी मन से बोझिल कदमों से बाहर आ गया।

घर पहुँचते-पहुँचते मैं निश्चय कर चुका था कि जीवन की प्रत्येक चुनौती का डटकर सामना करुंगा एवं संघर्ष से समस्याओं के निराकरण का रास्ता खोज कर ही दम लूंगा। इस निश्चय के साथ ही मेरे जीवन में सूर्योदय हो चुका था।

आदमी की

योग्यता, बुद्धिमानी, चतुराई और क्षमता का

सही मूल्यांकन

तब नहीं होता

जब आदमी

सफल हो रहा होता है।

उसकी कार्य क्षमता,

धैर्य और परिश्रम

मनन और चिन्तन का

पता लगता है

विपरीत परिस्थितियों में

उसके व्यवहार से।

अपने और अपने परिवार की

उदर पोषण की चिन्ता

जब उसे सताती है

जब उसे

कोई राह नजर नहीं आती है

तब होती है

उसकी परीक्षा।

अब मैंने इस परीक्षा में सफल होने के लिये जी-जान से जुटकर प्रयास करने का संकल्प ले लिया था। उस दिन सामान्य दिनों की तरह मैं अपने मित्र के साथ बैठा हुआ था। मेरे अन्दर की उथल-पुथल और चिन्ता को वे भांप गये। मैंने उन्हें सारी परिस्थितियों से अवगत कराया। वे मेरे कारखाना बेचने के निर्णय से पूरी तरह असहमत थे। उनका कहना था कि वक्त आता और जाता रहता है एवं समय कभी स्थिर नहीं रहता। आपके मन में यह दृढ़ निश्चय होना चाहिए कि कुछ भी हो जाए कैसी भी विपरीत परिस्थितियां हों कितना भी संघर्ष करना पड़े, मैं इस कारखाने को नहीं बेचूंगा। इसे सही पटरी पर लाकर रहुँगा। मेरे दिल और दिमाग में काकाजी के शब्द गूंज रहे थे। इसे मैंने चुनौती के रुप में स्वीकार किया।

हम हैं उस पथिक के समान

जिसे कर्तव्य बोध है

पर नजर नहीं आता

सही रास्ता

अनेक रास्तों के बीच

वह हो जाता है

दिग्भ्रमित।

इस भ्रम को तोड़कर

रात्रि की कालिमा को भेदकर

स्वर्णिम प्रभात की ओर

गमन करने वाला ही

पाता है सुखद अनुभूति और

सफल जीवन की संज्ञा।

हमें संकल्पित होना चाहिए

कितनी ही बाधाएं आएं

कभी नहीं होंगे विचलित

कभी नहीं होंगे निरूत्साहित

जब धरती-पुत्र

मेहनत, लगन और सच्चाई से

जीवन में करता है संघर्ष

तब वह कभी नहीं होता पराजित

ऐसी जीवन षैली

कहलाती है जीने की कला

और प्रतिकूल समय में

मार्गदर्शन देकर

दे जाती है जीवन-दान।

मैं अनुभव कर रहा था कि उद्योग जगत में और समाज में मेरे परिवार को उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाने लगा था। अब लोगों का व्यवहार हमसे वैसा नहीं रहा था जैसा पहले हुआ करता था। अब हमारा महत्व और सम्मान उनकी नजरों में कम हो गया था। इस स्थिति से मुझे हताशा भी आ गई थी। मैं भीतर ही भीतर स्वयं को अपमानित अनुभव करता था। मुझे अपने आध्यात्मिक गुरु के वचन एवं उनका मार्गदर्शन याद आया कि जीवन में उपेक्षा और अवहेलना से कभी विचलित नहीं होना चाहिए। ये हमें निरूत्साहित करते हैं लेकिन यदि हम अपने विचारों का आगमन और निर्गमन स्वतंत्र रुप से होने दे उन्हें सकारात्मक रखते हुए काल्पनिकता से वास्तविकता की ओर मोड़ें और आगे बढ़ते रहें तो वातावरण स्वतः बदलेगा एवं सृजन के नये आयाम बनते चले जाएंगे। सफलता प्राप्त करने के लिये सतत् संघर्ष करें तो वह अवश्य मिलेगी। समय की धैर्य पूर्वक प्रतीक्षा करना चाहिए एवं सही दिशा में कार्य करते रहना चाहिए। हमारी उपेक्षा और अवहेलना स्वयं सम्मान और आत्मीयता में परिवर्तित हो जाएगी।

उपहास

मनोदशा की

उपेक्षापूर्ण हास्याभिव्यक्ति है।

इससे विचलित मत होना

इसे समझना

एक उपहार

करना मनन और चिन्तन

और भी अधिक गम्भीरता से

यह उपहास ही बनेगा

तुम्हारी सफलता का आधार

इसे तिरस्कार मत समझना

इसे तो अपना मित्र मानकर

जीवन में करना

और अधिक परिश्रम

लाना समर्पण का भाव

अपने लक्ष्य की ओर

बढ़ते ही जाना

चलते ही जाना

उपहास को भूलकर

रहना सृजन में संलग्न

तब तुम्हें मिलेगा

मान-सम्मान और प्रशंसा

रहना समाज हित में समर्पित

उपहास होगा उपेक्षित

और जीवन को मिलेंगे

नये आयाम।

अब मैंने इस कारखाने का गम्भीरता पूर्वक अध्ययन किया। मेरे सामने यह स्पष्ट हो गया कि उत्पादकता में कमी और खर्चों की अधिकता के कारण यदि इस कारखाने में त्वरित उपाय नहीं किये गये तो यह हमेशा के लिये बन्द हो जाएगा। इसे वैधानिक रुप से कैसे बन्द किया जाए इस दिशा में भरपूर प्रयास किया गया। किन्तु सरकार के उद्योग विभाग ने इसे बन्द करने की अनुमति नहीं दी और अन्ततः लाक आउट करके इसे बन्द करना पड़ा।

यह हमारे देश में अजीब स्थिति है कि जिस कारखाने में सौ से अधिक कामगार हों तो उसे बन्द करने के लिये राज्य सरकार की अनुमति आवश्यक होती है। राजनैतिक कारणों से यह अनुमति प्रायः प्राप्त नहीं होती है चाहे आपका कारखाना कितने भी घाटे पर चल रहा हो। यह स्थिति श्रमिकों और उद्योगपति दोनों के लिये बहुत अधिक घातक है। इस कारण कारखाना समय पर बन्द न होने से मजदूरों को मुआवजे और ग्रेच्युटी का भुगतान भी पैसों के अभाव में रूक जाता है जिससे दोनों का ही अहित होता है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमारे देश में उद्योगों के संबंध में जो कानून बने वे समाजवादी विचारधारा के प्रभाव में बने। इसका परिणाम यह हुआ कि उनमें उद्योगपति की स्थिति को पूरी तरह नकार दिया गया था। उसे शोषणकर्ता और अत्याचारी मानते हुए ही इन नियम कानूनों का निर्माण किया गया। इसके परिणाम स्वरुप एक ओर देश का त्वरित औद्योगीकरण नहीं हो सका और दूसरी ओर उद्योगों की कठिनाइयों की उपेक्षा के कारण बहुत बड़ी संख्या में उद्योग बन्द हो गए और आज भी बन्द पड़े हैं। इससे एक ओर तो बेरोजगारी को दूर करने में उद्योगों की जो भूमिका हो सकती थी वह नहीं हो सकी और दूसरी ओर सरकार का अरबों रूपया बटटे खाते में चला गया।

हमने मिश्रित अर्थव्यवस्था को स्वीकार किया। न तो हम मार्क्सवादी ही रहे और न ही हम पूंजीवादी हो सके। इन दोनों के बीच हम कुछ ऐसी विचित्र स्थिति में आ गए जैसे धोबी का गधा न घर का न घाट का। सरकार को एक समय जो राष्ट्रीयकरण का भूत चढ़ा था उसने देश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका रखने वाले उद्योग जगत को भारी क्षति पहुँचाई है और हमारा सकल घरेलू उत्पादन लगातार गिरता चला गया। विश्व में सभी ओर प्रगति हो रही थी और हम स्वयं को अवनति के गर्त की ओर ले जा रहे थे।

हमारे कारखाने में कार्यरत श्रमिकों के रवैये से स्पष्ट था कि वे कोई भी बात सुनने के लिये और वस्तु स्थिति को समझने के लिये तैयार नहीं थे। मेनेजमेन्ट ने इन परिस्थितियों को देखते हुए कारखाने को बन्द करने के लिये एक नया प्रयोग किया जो बहुत सफल रहा। मेनेजमेन्ट ने इस कारखाने के शेयर स्टाक एक्सचेन्ज के माध्यम से अपने परिचितों को ही बेच दिये और यह खबर फैलने से कि कारखाना बेच दिया गया है श्रमिकों एवं अन्य कर्मचारियों में हड़कम्प की स्थिति बन गई। जब उन्होंने मेरे से सम्पर्क किया तो मैंने उन्हें इस सच्चाई से अवगत करा दिया कि अब मैं इस कम्पनी का मालिक नहीं हूँ।

इसी बीच बम्बई के एक रिश्तेदार ने नाटक कम्पनी में कार्य करने वाले एक कलाकार को कम्पनी के नये मालिक के प्रतिनिधि के रुप में भिजवा दिया। उसने यहाँ आकर गर्वपूर्वक कारखाने का निरीक्षण किया और मेनेजिंग डायरेक्टर की कुर्सी पर बैठ गया। उसे चारों ओर से सैकड़ों मजदूरों ने घेर लिया और मजदूर नेताओं ने उसका फूल-मालाओं से स्वागत करते हुए उससे आगे की कार्ययोजना के संबंध में चर्चा की। वह पहली बार किसी कारखाने के अंदर गया था। उसने घबराकर गोलमोल जवाब दिये और अपना पिण्ड छुड़ाकर अपना सामान होटल में छोड़कर वह सीधा बम्बई भाग गया। इसी बीच कारखाने का जनरल मैनेजर भी सपरिवार गायब हो गया। इससे सभी को यह विश्वास हो गया कि कारखाना बिक चुका है। अब शासकीय अधिकारियों द्वारा मुझे और यूनियन के नेताओं को तलब किया गया। मैंने उन्हें बता दिया कि अब मैं इस कारखाने का मालिक नहीं हूँ। इसकी पुष्टि मजदूर नेताओं ने भी की। तत्कालीन अधिकारियों ने मुझसे नये मालिक के विषय में जानकारी चाही। मैंने इससे अनभिज्ञता व्यक्त करते हुए उन्हें बतलाया कि मैंने कारखाना स्टाक एक्सचेन्ज के माध्यम से बेचा है। इससे शेयर किसने और कितने खरीदे हैं इसकी जानकारी मेरे पास नहीं है। यह सुनकर वे भड़क उठे और उन्होंने लेबर डिपार्टमेण्ट को कानूनी कार्यवाही करने का आदेश देते हुए कारखाने को सील कर दिया। श्रम विभाग ने इस पर भी अपने हाथ यह कहते हुए खड़े कर दिये कि जब कारखाने के मालिक का ही पता नहीं है तो प्रकरण किस पर दर्ज किया जाए और किस पते पर नोटिस भेजा जाए।

शासकीय अधिकारियों का सोचना था कि कारखाना सील करने से नया मालिक भागता हुआ आएगा परन्तु उनके पास कोई भी नहीं आया। इस स्थिति ने उनको हत्प्रभ कर दिया था और वे समझ नहीं पा रहे थे कि आगे क्या करें। कारखाना सील करने से उसकी सुरक्षा की सारी जवाबदारी भी उनके ही सिर पर आ गई। श्रमिक नेताओं ने शासकीय अधिकारियों के साथ मिलकर कारखाना प्रारम्भ करने का प्रयास किया। उन्होंने बिना वेतन के काम करते हुए कारखाना चालू करने में सहयोग का वचन दिया। अधिकारियों ने इस पर कारखाना चालू करने का प्रयास भी किया किन्तु आवश्यक कार्यकारी पूंजी का प्रबंध करना एक समस्या था। उसके बिना कच्चे माल की आपूर्ति नहीं हो सकती थी। विभिन्न वित्तीय संस्थाओं से जब पूंजी की व्यवस्था करने की कोशिश की गई तो उनने हाथ खड़े कर दिये। जिस कारखाने के मालिक का ही पता न हो उसे वे किस आधार पर कर्ज देते।

इसके बाद अधिकारियों ने इस कारखाने को नीलाम करने की योजना बनाई। इसके लिये जब उन्होंने विधि विशेषज्ञों की सलाह ली तो अनेक पेंच सामने आए। पहला तो यह कि मजदूरों को कितना भुगतान किया जाना है इसका कोई प्रामाणिक विवरण उपलब्ध नहीं था। दूसरा यदि वे इसे नीलाम करते हैं तो बैंक का जो कर्ज था उसे कैसे चुकाया जाएगा। तीसरा नीलामी के बाद अगर नया मालिक आ गया और उसने दावा ठोक दिया तो सारे अधिकारी कटघरे में खड़े हो जाएंगे। इसके कारण उनकी यह योजना भी ठप्प हो गई।

कारखाने का पुराना मालिक उनके सामने था और उनसे अपने लायक सहयोग के लिये पूछ रहा था। वह खुलेआम शहर में घूम रहा था। मजदूर कारखाने को चालू करवाने के लिये अधिकारियों को घेर रहे थे और प्रदेश सरकार उन पर इसके लिये राजनैतिक दबाव डाल रही थी। उद्योग जगत में और जन सामान्य के बीच लोग उनकी इस बेबसी और दीन-हीन दशा पर चटकारे ले रहे थे। सरकारी अधिकारी किसी मदारी के बन्दर जैसे नाच रहे थे और पब्लिक उन पर ताली बजाबजा कर उनकी हंसी उड़ा रही थी। मजदूरों ने न्याय पाने के लिये कारखाने के दरवाजे पर धरना प्रारम्भ कर दिया था। मैं भी उनके समर्थन में उनके साथ जाकर धरने पर बैठ गया। अब स्थिति और भी हास्यास्पद हो गई थी। समाचार पत्र प्रमुखता से छाप रहे थे कि मजदूरों के साथ ही पुराने मालिक भी धरने पर बैठे हैं और सरकार कुछ भी नहीं कर पा रही है।

कारखाना बन्द होने के एक सप्ताह बाद ही मैंने दस लाख की एक कार खरीदी। मेरा उद्देश्य था कि समाज को यह अनुभव न हो कि मेरे पास अब धन नहीं है। दूसरा उद्देश्य मजदूरों पर मानसिक दबाव बनाना था कि कारखाने के पूर्व मालिक को कारखाना बन्द हो जाने की परवाह नहीं है। तीसरा ऐसा करने से अपना पैसा डूब जाने के भय से जिन लोगों को कारखाने से भुगतान लेना था जो कि बहुत अधिक दबाव बना रहे थे उनका दबाव कम करना था, उन लोगों को लगा कि मेरे पास धन की कमी नहीं है और इससे मुझे भी परिस्थितियों को संभालने का समय मिल गया।

अब मैंने आत्मावलोकन प्रारम्भ किया और अपनी गलतियों को चिन्हित करने का प्रयास किया। मेरी पहली गलती यह थी कि मैंने परिस्थितियों को न समझते हुए अत्यधिक आत्मविश्वास से काम किया। दूसरा मुझे सही समय पर सही परामर्श नहीं मिल सका। तीसरा मैं हर समय शासकीय नियमों का पालन करने का प्रयास करता रहा। चौथा बैंक एवं निजी पूंजी का कर्ज, पांचवां कारखाने को बन्द करने में अत्यधिक विलम्ब होना, समय पर कारखाना बन्द न होने के कारण वह राशि जो श्रमिकों को ग्रेच्युटी और मुआवजे के रुप में दी जाना थी वह वेतन के रुप में खर्च हो गई जिससे कारखाने का घाटा और भी अधिक बढ़ गया। छटवां कारखाने में मजदूरों की संख्या आवश्यकता से बहुत अधिक होना और उत्पादकता व उसकी गुणवत्ता में कमी होना। सातवां मजदूरों में अनुशासन का न होना और अधिकारियों की बात न मानते हुए उनकी उपेक्षा और अवहेलना करना। इससे बाजार में हमारी साख पर विपरीत प्रभाव पड़ा व समय पर भुगतान न कर पाने के कारण एक ओर अधिक दाम पर कच्चा माल खरीदना पड़ा तो दूसरी ओर बाजार में अच्छी गुणवत्ता के अभाव में माल को बेचने में कठिनाई होना। हमारे कारखाने की साख लगातार कम हो रही थी और बाजार में बहुत तेजी के साथ यह बात फैल रही थी कि पार्टी दिवालिया हो रही है।

ऐसे विपरीत समय में जल्दी धन कमाने के लिये मैंने शेयर मार्केट में काम करना चालू किया। इसकी मुझे पूरी जानकारी नहीं थी इसलिये इसमें भारी घाटा उठाना पड़ा। एक बात मैं निश्चित रुप से कह सकता हूँ कि शेयर मार्केट में जो प्रतिदिन खरीद बेच करते हैं वे जीवन में कभी भी धन नहीं कमा सकते। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि ऐसा कोई व्यक्ति नहीं होगा जिसने लाभ कमाया हो। शेयर मार्केट में सिर्फ वही धन कमा सकता है जो शेयर खरीदकर लम्बे समय तक उन्हें अपने पास रखे। यह एक प्रकार का वैधानिक सट्टा है। भारत सरकार को प्रतिवर्ष अरबों रूपया टैक्स के माध्यम से प्राप्त हो रहा है इसलिये वे शेयर मार्केट को महत्व देते हैं। मैंने इस अनुभव के बाद स्वयं को शेयर मार्केट से सदैव के लिये दूर कर लिया।

इतना सब कुछ होने पर भी मैंने आशा नहीं छोड़ी थी और मुझे विश्वास था कि आगामी एक वर्ष में कोई न कोई समाधान अवश्य प्राप्त हो जाएगा। मेनेजमेन्ट ने आगामी दो माह तक मजदूरों से कोई चर्चा नही की। वर्षा ऋतु प्रारम्भ हो चुकी थी। शैक्षणिक संस्थान प्रारम्भ हो चुके थे। श्रमिकों को अपने बच्चो की पढ़ाई-लिखाई के लिये धन की आवश्यकता थी। उन्हें अनेक माह से वेतन नहीं मिल रहा था। उनकी संचित पूंजी समाप्त हो चुकी थी। उन्हें यह अनुभव होने लगा था कि जब तक यह कारखाना हमारे परिवार के हाथों में था तब तक उन्हें ऐसी स्थितियों का सामना नहीं करना पड़ा था। हर हालत में उन्हें समय पर वेतन का भुगतान प्राप्त हो जाया करता था। मजदूरों को यह भी आभास हो गया था कि इस कारखाने व कम्पनी में जो कुछ भी हुआ हो पर अप्रत्यक्ष रुप से उसका प्रबंधन पुराने मेनेजमेण्ट के हाथ में ही था। यूनियन के नेताओं की बहुत किरकिरी हो चुकी थी और मजदूर सीधे बात करने की स्थिति में आ चुके थे। इसी कारण से मजदूरों का एक प्रतिनिधि मण्डल मुझसे आकर मिला। उसने मुझसे निवेदन किया कि मैं मध्यस्थता करके किसी प्रकार से समझौता करवा दूं। मैंने ये सभी बातें अपने अधिकारियों के सामने रखकर उनसे सुझाव मांगे। हम सभी ने मिलकर चर्चा की और इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि कारखाने को पुनः प्रारम्भ करने के लिये निम्नलिखित परिवर्तन करना बहुत आवश्यक है।

पहला आवश्यकता से अधिक मजदूरों की छटनी करना। दूसरा मजदूरों का वेतन शासकीय नियमों के अनुसार न्यूनतम किया जाए। तीसरा उत्पादन में बीस प्रतिशत की वृद्धि। चौथा कड़ा अनुशासन एवं अधिकारियों के प्रति पूर्ण सम्मान। हमने अपने जनरल मेनेजर को वार्तालाप के लिये अधिकृत कर दिया। श्रमिकों को भी उनके ऊपर काफी विश्वास था। इस कारण समझौते का एक आधार बना था परन्तु इमारत का निर्माण अभी दूर था। मुझे आशा थी कि अगले पांच-छः माह में समझौता सम्पन्न हो जाएगा। परन्तु मैं चकित रह गया कि तीन दिन के अंदर ही समझौते का प्रारुप श्रमिक यूनियन की ओर से हमें प्राप्त हो गया। हम अचरज में थे कि मजदूरों की सूची में जिनकी छटनी होना है उनकी लिस्ट भी संलग्न थी। मैंने उक्त समझौते में केवल एक धारा जुड़वाई जिसके अनुसार हम मजदूरों को अपने देश की सीमा में किसी भी स्थान पर किसी भी कारखाने में स्थानान्तरित कर सकते हैं। इसका